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शुक्रवार, 3 जून 2011

ये काटे ------------- the hardness of life

आज लगता है ये ख्वाब न देखा होता तो आज दर्द न होता  कुछ अरसो पहले  
आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर  खुद को देखा करते थे  देर तक बदती दाड़ी 
छोड़ी होती छाती को देखते हुए  सोचता था  की कब मई बड़ा हो जाऊंगा कब ये वक़्त गुजर जायेगा 
दाडी मे आये बालो को पूरी सजगता से गिना करता था  जितना दर्द उने तोड़ते वक़्त नहीं हुआ 
उससे कई गुना दर्द इन बालो के कड़क और बड़े होने के साथ बढता गया  हर एक दाडी के बाल के साथ
नए अरमान और उतने हे कड़े नियम और जिमेदारिया बढती गयी  कभी दाडी पर समाज की नज़रो का बोज़
तो कभी खुद के अरमानो का वजन कभी कमाने का कडकपन कभी अपनों को छोड़ने का रुखापण 
किसी की चाहत का दर्द रुखी दाडी मे नज़र आने लगा  दाडी के कडकपन के साथ दर्द भी उम्र लेता गया 
----------------------------------------भाग २---------------------------------------------------
काश न शीशे मे ये बाल नज़र आते  न बदती उम्र का अहशाश होता सोचता हु एक बार फिर 
दाडी के बाल साफ़ करवा  कर इन रजो गम को चुपचाप  बाज़ार मे छोड़ कर अँधेरी गली से 
घर मे गुश कर दरवाजा बांध कर दू  कही बार हालातो से तंग आकर एसा करता भी हु पर 
दर्द ऐ गम का जो रिश्ता है मुजशे कुछ खास का 
दो रातो मे ये कडकपन  फिर चहरे पे  नज़र आने लगता है अब तो आइनों से डर लगने लगा है
दिल करता है जो काटे इस चहरे पर उग आये है  उने  जला कर खुद सुनरे वक़्त  मे खो जाऊ 
कभी मन करता है सीशो मे ज़ाखना छोड़ दू    फिर भी ये काटे अपनी चुभन से अपने होने का 
अहशाश  करवाते है   ये काटे -------------                हनी शर्मा  

रविवार, 29 मई 2011

मुझे न पता था

वादे उस बेवफा के  शीशे से भी कमजोर थे जो एक जटके मे टूट गए

कसमे  साथ  जन्मो की थी  कचे धागे सी टूट गयी 

न जाने क्यों किस्मत मुजशे रूठ गयी 

बेवफा होगी वो मुझे न ये खबर थी 

मुझे न पता था मोह्ब्हत   इतना दर्द देती है 

किसी की बेवफाई जिन्दगी  भर आशु  देती है 
 
हज़ार वादे कसमे रोने को यादे देती है 
 
मोहबत  तोहफे मे  खून  के आशु देती है 

मुझे न पता था              

मोहबत  तोहफे मे जान लेती है 

  मुझे न पता था      

शनिवार, 21 मई 2011

पढ़ लिख गए तो कमाने निकल गए

घर लौटने मे जमाने निकल गए   
पढ़ लिख गए तो कमाने निकल गए 

घर लौटने मे जमाने निकल गए                       

अब ये केवल किसी ग़ज़ल की पंक्तिया  न होकर जिन्दगी की  हकीकत हो गयी 

हर दिल मे इस बात की  टीस रह  गयी

घिर आई शाम हम भी चले अपने घर  की और 

पंछी भी अपने ठिकाने  निकल गए 

अब तो हम भी अपने गरोंदो  के लिए चल दिए मगर अब तो देर हो चुकी थी 

जब घर को लौटे तो जमाने निकल गए 

बरसात गुजरी सरसों के  मुरजा गए फूल
उनसे मिलने के सारे रास्ते गए भूल 

   कुछ के चहरे अब भी है याद कुछ हम को गए भूल 

   पहले तो हम बुज़ाते  रहे अपने घर की आग 
    फिर बस्तियों मे आग लगाने निकल गए   
    
   खुद मछलिया पुकार रही है कहा है जाल 
   तिरो की आरजू मे निशाने निकल गए 

   किन  शाएलो  पे नीद की परिया उतर आई 
    किन जंगलो मे ख्वाब सुहाने निकल गए 

  हनी , हमारी आँखों का आया उसे ख़याल 
  जब सारे मोतियों के खजाने निकल गए              
     
    हालत यही थे हमारी जिन्दगी के पढ़ लिख गए तो कमाने निकल गये 
       लौटने मे घर को जमाने निकल गए  लौटे थे घर को तो चुलो मे राख
       और खली बर्तन रह गए थे कुछ धुंदली यादे और चहरे पे अश्क रह गए थे 
       उनकी गलिया भी सुनी थी जहा कभी  महफ़िल हुआ करती थी  
                 कभी इस घर मै माँ की हसी गूंजा करती थी 
                 अब तो बस खुद से बतियाती दीवारे रह गयी 
     
 जब सारे मोतियों के खजाने निकल गए 
           आती थी वो कुए पर तो नज़र बचा कर हम से मुस्कराया करती थी अब तो 
             अब तो चेहरा  देखे  जमाने ===================     गुज़र गए 
          
              घर लौटने मै जमाने निकल गए   देखे अपनों को  अब तो जमाने निकल गए 
               घर लौट अब तो जमाने निकल गए ===========================


                घर लौटे अब जमाने निकल गए ============================================

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

समाज का सिनेमा the reall story of indian social

honeywithpoem.blogspot.com
समाज शब्द  सुनने मै जितना सुन्दर है यथ्रात के धरातल  पर  उतना ही  भयानक    मेरे एक अद्यापक कहा करते थे की समाज चन्द गुंडे लोगो का समहू है जो लोगो को छलता   रहता  है   अगर आजाद होना है तो  हमें समाज से आजाद होना चहिये समाज नाम का ये  भयानक किरदार इंसान की जिन्दगी का सब से बड़ा खलनायक है  ये प्रेम चोपरा की तरह  पुरे के पुरे व्यक्ति की डकार मार कर अमरीश पूरी की तरह खुश होता  है
समाज तो शक्ति कपूर जेसा है  कोई भी लड़की नज़र आई तो उसे गुरना शरू (आहू ..आहू.)  ( नज़र रखना शरू)   
समाज तो ३ इन वन खलनायक है और तो आश्चर्ये की बात है की जिन्दगी के सिनेमा मै खलनायक के खिलाफ कोई नायक खड़ा ही  नहीं हो पाता ( ये पहला  सिनेमा है जाह पर  नायक की हार होती है )  खड़े होने से पहले ही  समाज के लम्बे लम्बे ताने नायक को जिन्दा ही  दफ़न कर देते है   जिन्दगी के सिनेमा मै कही प्रेम  कहानीया बनती है  रोज कई लैला मजनू  मरते है कही आशिक  कतल होते है  तो किसी  का प्यार  सांस  भी नहीं ले पाता  है
 पर यहाँ  समाज का राज है  यहाँ  वही चलेगा जो समाज चाएगा इस फिल्म (सिनेमा) मै एक ही डायलोग है अरे समाज क्या कहेगा  कुछ तो समाज की सोच  इधर न सन्नी  पाजी का ढाई किलो का हाथ काम आता  है  न कुछ  समाज  तो पुरानी हिंदी  (फिल्मो ) सिनेमा का  ठाकुर  होता है जो केवल गरीबो का खून चूसा करता था और समाज रूपी  ठाकुर केवल माद्यम वर्ग को छलता है समाज  का जहर तो होता हे माद्यम वर्ग के लिए है  ग़रीब अगर समाज के खिलाफ कुछ करे तो   कहा  जाता है  गरीब है  ऐसी हरकत तो करंगे हे वरना बेचारे जायेंगे कहा और अमीर करे तो नयी फैशन मरता तो मिद्दल क्लास है   सम्माज के फूटे ढोल को मिद्दल  क्लास इंसान दोनों और से जोरो से बजा बजा कर अपनी जुटी ख़ुशी का दिखावा कर रहा है         समाज  तो एक लुटेरा है   

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

अश्क

आज शाम डलते डलते कोई ४ बजे होगे और आज  आसमान की आँखों मै भी नशा  नजर आ रहा है
   जेसे पूरी रात सोया न हो आँखे भारी सी है 
कुछ अश्क की बुँदे  इशक के धरातल पर टपकने को आतुर सी नज़र आती है 
आकाश की छवि धरातल के अक्ष से आज बड़ी धुंधली सी नज़र आ रही है
 जेसे कोई पुरानी तस्वीर याद आ रही हो उसके साथ गुजरा ज़माना याद आ रहा हो  आँखों  के 
सामने सब दुन्ध्ला सा है लगता है  आसमा के आशु   निकल आयेंगे इतनी बड़ी गहरी आखो मै 
कब तक तेर पायेंगे  दूर पाहडी  पर तहरा आकश एसा नज़र आता है जेसे अभी रो देगा 
न जाने क्यों आज आकश इतना प्यारा और दर्द का सागर लगता है दिल मै तड़प उठती है की इसे बाहों मै 
ले कर जी भर कर रो ले आसमा के  के साथ अपने अश्क  खो दे    

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

आज फिर वसंत लौट आया है


 आज फिर वसंत लौट आया है तेज हवा चुभती धुप के साथ
पेड़ो से पते पक कर गिरने लगे है आम पीपल नीम पलाश गुलमोहर  
से गिरते पतों को देखकर कहता हु की काश...........................
   जो दुखो का सैलाब मुजशे जुड़ा है वो भी अब तो पक चूका है.
काश ये दर्द का सैलाब भी इन सूखे पतों की तरह  मेरे जिस्म ऐ (रूह)
का साथ छोड़ दे.                       ........................................................................................................................................................     सुहानी लगती है वसंत की चांदनी  राते हलके
होकर चमकते पेड़ सुख के सागर मै गोत्ते लगाते ये पेड़ बड़े सुन्धर मालूम होते है
चमकते पेड़ इन चांदनी रातो मै जानत का नज़ारा देते है  जेसे श्री कृष्ण ने यही राश रचा हो 
 चांदनी रात मै बांशुरी बजाई हो  हो समधुर सुर है सारा का सारा वातावरण जेसे ख़ुशी  के
 फाग मै रंगा हो  सबने अपने दुखो को त्याग कर जिस्म ऐ रूह को हल्का कर लिया  काश वसंत की चांदनी रात मै गिरते पतों की तरहे मेरा भी दर्द सदा  सदा की लिए कृष्ण की सुमधुर बांशुरी  मै खो जाये  गिरते पतों मै ये दर्द भी गिर जाए